कैसे करें विघ्नहर्ता गणेश जी को प्रसन्न?
“वक्रतुंड महाकाय सूर्यकोटी समप्रभ।
निर्विघ्नं कुरु मे देव सर्वकार्येषु सर्वदा ।।”
हे भव्य शरीर, वक्र सूंड, दश लक्ष सूर्यों की चमक वाले गणेशजी, मेरे सारे कर्मों को विघ्नों से हमेशा मुक्त करते रहना।
गणपति स्थापना 2023 के शुभ महुर्त
यदि आप भगवान की प्रतिमा का निर्माण करना चाहते है, या बाजार में उपलब्ध प्रतिमा लाने वाले है तो चतुर्थी से एक दिन पहले 19 सितंबर को शुभ, लाभ या अमृत चैघड़िये का चुनाव करें, जो इस प्रकार है।
लाभ – 11:01 ए एम से 12:32 पी एम
शुभ – 03:35 पी एम से 05:06 पी एम
शाम का महुर्त – 06ः54 PM से 08ः20PM तक
यदि आप गणेश चतुर्थी या 20 सितंबर के दिन ही प्रतिमा लाना चाहते है तो महुर्त इस प्रकार है।
अमृत – 12:32 ए एम से 02:01 ए एम, सितम्बर 20
शुभ -11:04 पी एम से 12:32 ए एम, सितम्बर 20
शास्त्रों के अनुसार गणेश जी का जन्म दोपहर के समय माना जाता है। गणेश चतुर्थी 2023 को गणपति जी की स्थापना के लिए सबसे उचित महुर्त 12:33 पी एम से 02:04 तक है।
गणेश जी की उत्पत्ति की कथा
गणेशजी की उत्पत्ति के विषय में बहुत से मत हैं और उन के अनुसार चार से पाँच अलग-अलग कथाओं का उल्लेख गणेश पुराण में किया गया है, जिस में से सबसे प्रचलित कथा इस प्रकार है। श्वेत कल्प में वर्णित गणेशजी की उत्पत्ति कथा के अनुसार भगवती पार्वतीजी और कैलाशपति भगवान शंकर आनंद एवं उत्साहपूर्वक जीवन व्यतीत करते थे। एक दिन दोनों सखियाँ जया और विजया ने आकर माँ उमा से कहा कि नंदी, भृंगी आदि सभी गण रुद्र के ही हैं। वे भगवान शंकर की ही आज्ञा में तत्पर रहते हैं। हमारा कोई नही है, इसलिए हमारे लिए गण की रचना करें। माता पार्वती जी इस बात को ध्यान में ले कर विचार करने लगीं। एक दिन ऐसा हुआ कि भगवती उमा स्नानागार में थीं और द्वारपाल के रूप में नंदी खड़ा था। उसी समय महेश्वर वहाँ पहुँचे। नंदी ने निवेदन करते हुए बताया कि माताजी स्नान कर रही हैं, किंतु नंदी के निवेदन की अवहेलना करके महेश्वर ने स्नानागार में प्रवेश किया। इस से माता पार्वती लज्जित हो गईं। अब उन्हें जया- विजया का प्रस्ताव उचित लगा और विचार किया कि यदि द्वार पर मेरा कोई गण होता तो शिवजी एकाएक इस तरह स्नानागार में प्रवेश नहीं कर पाते।
इस तरह विचार कर त्रिभुवनेश्वरी उमा ने अपने अंग पर के मैल से एक पुतला बनाया और उस में प्राण का संचार किया। वह बालक परम सुंदर, अत्यंत शक्तिशाली और पराक्रमी था। उस ने पार्वती जी के चरणों में अत्यंत श्रद्धा के साथ प्रणाम किया और उन की आज्ञा माँगी। देवी पार्वती ने कहा कि तू मेरा पुत्र है। सदा मेरा ही है। तू मेरा द्वारपाल हो जा और मेरी आज्ञा के बिना कोई मेरे अंतःपुर में न प्रवेश करे इस का ध्यान रखना। एक बार तपस्या करके घर वापस आने पर महादेवजी घर में प्रवेश करने गये, तब दरवाज़े के पास खड़े गणपतिजी ने उन्हें जाने से रोका। भगवान शंकर गुस्सा हुए। दोनों के बीच युद्ध हुआ। अंत में महादेव जी ने गणेशजी का मस्तक धड़ से अलग कर दिया। पार्वती जी विलाप करने लगीं। पार्वतीजी के दुःख का समन करने के लिए और गणेशजी को दुबारा जीवित करने के लिए महादेवजी ने एक हाथी का मस्तक काट कर गणपति जी के धड़ पर रख दिया। तब से गणेशजी गजानन कहलाने लगें।
गणेशजी के मुख्य १२ नाम और उन का रहस्य
(1) सुमुख (2) एकदंत (3) कपिल (4) गजकर्ण (5) लंबोदर (6) विकट (7) विघ्ननाशन (8) विनायक (9) धूमकेतु (10) गणाध्यक्ष (11) भालचंद्र (12) गजानन
गणेशजी को सुमुख (जिसका मुँह सुंदर है) कहा गया है। इस विषय में सभी के मन में विचार पैदा होना स्वाभाविक ही है कि गजानन को सुमुखी किस तरह कहा जा सकता है। इस के लिए सुंदरता अथवा रमणीयता के निम्नलिखित लक्षण देखें- क्षण-क्षण नवीनता दर्शाना रमणीयता का लक्षण है। गणेशजी का मुख प्रति पल देखने पर नया ही लगता है। साथ ही भोलेनाथ शंभु को कर्पुरगौर अर्थात् कपूर गौर वर्णवाला कहा जाता है। माता पार्वती जी ने तो अपरंपार सौंदर्यवान बनाया है। इसलिए इन दोनों पुत्रों को स्वाभाविक रूप से ही सुमुखी कहा जाता है। भगवान शंकर ने गुस्से में आकर गणपतिजी का मस्तक उड़ा दिया, तब उस में से जो तेजपुंज निकला वह सीधे चंद्रमा में जाकर समा गया और कहा जाता है कि जब हाथी का मस्तक उन के धड़ के साथ जोड़ा गया तब वह पुँज वापस आकर गजानन के मुख में समा गया। इसलिए भी इन्हें सुमुख कहा जाता है। साथ ही इन के मुँह की संपूर्ण शोभा का आंकलन करते हुए इन्हें मंगल के प्रतीक के रूप में माना गया है और इसलिए इन्हें सुमुख के रूप में संबोधित किया जाता है।
इनके एकदंत नाम के पीछे की कथा ऐसी है कि एक बार माता पार्वतीजी स्नान करने बैठी थीं। श्री गणेशजी द्वारपाल के रूप में बाहर खड़े थे और किसी को भी अंदर जाने नहीं दे रहे थे। ऐसे में वहाँ एकाएक परशुराम पहुँच गये और अंदर जाने का आग्रह करने लगे। इससे दोनों के बीच उग्रतापूर्ण बातें हुईं और फिर लड़ाई ठन गई। गणेशजी बालक थे इसलिए परशुराम स्वयं पहले हथियार उठाना नहीं चाहते थे, परंतु गणेशजी के तीखे तमतमाते वचनों को सुनकर क्रोध में आकर उन्होंने गणेशजी पर प्रहार कर दिया। अतः गणेशजी का एक दांत टूट गया। इस कारण गणेश जी को एकदंत भी कहा जाता है। जब तक गणेशजी के मुँह में दो दाँत थे तब तक उनके मन में द्वैतभाव था, परंतु एक दांतवाला हो जाने के बाद वे अद्वैत भाव वाले बन गये। साथ ही एकदंत की भावना ऐसा भी दर्शाती है कि जीवन में सफलता वही प्राप्त करता है, जिस का एक लक्ष्य हो। एक शब्द माया का बोधक है और दाँत शब्द मायिक का बोधक है। श्री गणेशजी में माया और मायिक का योग होने से वे एकदंत कहलाते हैं।
गणेशजी का तीसरा नाम कपिल है। कपिल का अर्थ गोरा, ताम्रवर्ण, मटमैला होता है। जिस प्रकार कपिला (कपिलवर्णी गाय) धूँधले रंग की होने पर भी दूध, दही, घी आदि पौष्टिक पदार्थों को दे कर मनुष्यों का हित करती है उसी तरह कपिलवर्णी गणेशजी बुद्धिरूपी दही, आज्ञारूप घी, उन्नत भावरूपी दुग्ध द्वारा मनुष्य को पुष्ट बनाते हैं तथा मनुष्यों के अमंगल का नाश करते हैं, विघ्न दूर करते हैं। दिव्य भावों द्वारा त्रिविध ताप का नाश करते हैं।
गणेशजी का चौथा नाम गजकर्ण है। हाथी का कान सूप जैसा मोटा होता है। गणेशजी को बुद्धि का अनुष्ठाता देव माना गया है। भारत के लोगों ने अपने आराध्य देव को लंबे कानवाला दर्शाया है, इसलिए वे बहुश्रुत मालूम पड़ते हैं। सुनने को तो सब कुछ सुन लेते हैं परंतु बिना विचारे करते नहीं। इस का उदाहरण प्रस्तुत करने की इच्छा से गणेशजी ने हाथी जैसा बडा कान धारण किया है।
गणनाथ जी का पाँचवाँ नाम लंबोदर है। लंबा है उदर जिस का वह लंबोदर, अर्थात् गणेश। किसी भी तरह की भलीबुरी बात को पेट में समाहित करना बड़ा सदगुण है। भगवान शंकर के द्वारा बजाए गए डमरू की आवाज के आधार पर गणेशजी ने संपूर्ण वेदों का ज्ञान प्राप्त किया। माता पार्वती जी के पैर की पायल की आवाज से संगीत का ज्ञान प्राप्त किया। शंकर का तांडव नृत्य देख कर नृत्य विद्या का अध्ययन किया। इस तरह से विविध ज्ञान प्राप्त करने और उसे समाहित करने के लिए बड़े पेट की आवश्यकता थी।
गणेशजी का छठा नाम विकट है। विकट अर्थात भयंकर। गणेशजी का धड़ मनुष्य का है और मस्तक हाथी का है। इसलिए ऐसे प्रदर्शन का विकट होना स्वाभाविक ही है, इस में कोई आश्चर्य की बात नहीं है। श्री गणेश अपने नाम को सार्थक बनाने के लिए समस्त विघ्नों को दूर करने के लिए विघ्नों के मार्ग में विकट स्वरूप धारण करके खड़े हो जाते हैं।
श्री गणेशजी का सातवाँ नाम विघ्ननाशक है। वास्तव में भगवान गणेश समस्त विघ्नों के विनाशक हैं और इसीलिए किसी भी कार्य के आरंभ में गणेश पूजा अनिवार्य मानी गई है।
गणेशजी का आठवाँ नाम विनायक है। इस का अर्थ होता है- विशिष्ट नेता। गणेशजी में मुक्ति प्रदान करने की क्षमता है। सभी जानते हैं कि मुक्ति देने का एकमात्र अधिकार भगवान नारायण ने अपने हाथ में रखा है। भगवान नारायण मुक्ति तो शायद देते हैं किंतु भक्ति का दान नहीं देते। परंतु गणेशजी तो भक्ति और मुक्ति के दाता माने जाते हैं।
गणेशजी का नौवाँ नाम धूमकेतु है। इस का सामान्य अर्थ धूँधले रंग की ध्वजावाला होता है। संकल्प- विकल्प की धुंधली कल्पनाओं को साकार करने वाले और मूर्तस्वरूप दे कर ध्वजा की तरह लहराने वाले गणेशजी को धूमकेतु कहना यथार्थ ही है। मनुष्य के आध्यात्मिक और आधि-भौतिक मार्ग में आने वाले विघ्नों को अग्नि की तरह भस्मिभूत करने वाले गणेशजी का धूमकेतु नाम यथार्थ लगता है।
गणेशजी का दसवाँ नाम गणाध्यक्ष है। गणपति जी दुनिया के पदार्थमात्र के स्वामी हैं। साथ ही गणों के स्वामी तो गणेशजी ही हैं। इसीलिए इनका नाम गणाध्यक्ष है।
गणेशजी का ग्यारहवाँ नाम भालचंद्र है। गजानन जी अपने ललाट पर चंद्र को धारण करके उस की शीतल और निर्मल तेज प्रभा द्वारा दुनिया के सभी जीवों को आच्छादित करते हैं। साथ ही ऐसा भाव भी निकलता है कि व्यक्ति का मस्तक जितना शांत होगा उतनी कुशलता से वह अपना कर्तव्य निभा सकेगा। गणेशजी गणों के पति हैं। इसलिए अपने ललाट पर सुधाकर-हिमांशु चंद्र को धारण करके अपने मस्तक को अतिशय शांत बनाने की आवश्यकता प्रत्येक व्यक्ति को समझाते हैं।
गणेशजी का बारहवाँ नाम गजानन है। गजानन अर्थात हाथी के मुँह वाला। हाथी की जीभ अन्य प्राणियों से अनोखी होती है। गुजराती में कहावत है – पडे चड़े, जीभ वड़े, ज प्राणी। मनुष्य के लिए यह सही है। अच्छी वाणी उसे चढ़ाती है और खराब वाणी उसे गिराती है। परंतु हाथी की जीभ तो बाहर निकलती ही नहीं। यह तो अंदर के भाग में है। अर्थात इसे वाणी के अनर्थ का भय नही है।
चतुर्थी को ही गणेश व्रत क्यों?
ज्योतिषशास्त्र में सूर्य के साथ विशेष संबंध स्थापित किया गया है। सूर्य ब्रह्मांड की प्राणशक्ति का केन्द्र है और चंद्रमा ब्रह्मांड की मनःशक्ति का सर्वस्व है। जिस प्रकार अमावस्या के दिन चंद्र सूर्य की कक्षा में विलीन रहता है और पूर्णिमा को दोनों ग्रह क्षितिज पर ठीक आमने-सामने उदित होने से समान रेखा पर रहते हैं, वैसे ही शुक्ल और कृष्ण दोनों पक्षों की अष्टमी तिथि को चंद्र और सूर्य अर्द्ध सम रेखा पर यानि कि परस्पर ९० अंश पर रहते हैं। इस तरह सूर्य चंद्रमा की दूरी के आधार पर तिथियाँ निर्मित होती हैं। स्थूल तथा सूक्ष्म जगत पर तिथियों के अधिष्ठाताओं का आधिपत्य है। इसलिए हिन्दुओं के सभी सकाम व्रत चंद्र तिथियों के साथ संबंधित हैं। इसी तरह एकम् अर्थात प्रतिपदा आदि पंद्रह तिथियों का भी किसी न किसी दैवी शक्ति के साथ विशेष संबंध है। इन तिथियों के अधिष्ठाता निर्धारित किये गये हैं। चतुर्थी के दिन अवकाश में सूर्य और चंद्र की स्थिति कुछ ऐसी कक्षा में होती है कि उस दिन मानव मन सहज कृत्यों को करने के लिए प्रेरित होता है जो मानव के जीवन और प्रगति में अवरोध रूप बन सकता है। गणेशजी सभी विघ्नों को हरने वाले और रिद्धि-सिद्धि के दाता माने जाते हैं। इसलिए चतुर्थी के दिन उपस्थित होने वाली संबंधित बाधाएँ और विघ्नों को रोकने के लिए गणेशजी की उपासना की जाती है, ताकि मन उस दिन संयमित रहे और किसी अनिष्ट कार्य का आचरण न हो।
गणेश चतुर्थी का व्रत किस तरह करें?
गणेश चतुर्थी के दिन प्रातःकाल उठ कर दैनिक क्रियाओं को पूरा कर के, स्नान करके शुद्ध वस्त्र धारण करें। पूजा के स्थान पर पूर्व दिशा की ओर मुँह रख कर कुश के आसन पर बैठें। अपने सामने छोटी चौकी के आसन पर सफेद वस्त्र बिछा कर उस पर एक थाली में कुंकुंम से ‘शुभ लाभ’ लिखें या स्वस्तिक का चिह्न बनाएँ और उस पर मूर्ति स्थापित करें। थाली में कुंकुंम और केसर से रंगे अक्षत का ढेर करें और उस पर गणेशजी कॊ मूर्ति रख कर उन की पूजा करें और शुद्ध घी का दीपक जलाएँ तथा दिन के दौरान उपवास करके रात में चंद्रमा का दर्शन कर के श्री गणेशजी को लड्डू का भोग लगाएँ और नेत्र बंद करके पूरी श्रद्धाभाव से गणेशजी का व्रत पूरा करें।
संकट चतुर्थी व्रत करने से आप के जीवन में आए हुए हरेक प्रकार के संकट दूर होते हैं और यदि किसी भी प्रकार का दोषारोपण लगा हो तो दूर होता है। समाज में मान-प्रतिष्ठा मिलती है। आयुष्य और बल में वृद्धि होती है और सर्वत्र आप की कीर्ति फैलती है।
गणपति को जलस्नान कराने से जीवन से दुःख का नाश होता है और सुख का आगमन होता है। जीवन में विद्या, धन संतान और मोक्ष की प्राप्ति होती है।
गणपति को सफेद पुष्प अथवा जासुद अर्पण करने से कीर्ति मिलती है।
वहीं दुर्वा अर्पण करने से सौभाग्य की प्राप्ति होती है, आर्थिक उन्नति होती है और संतान का सुख मिलता है।
गजानन को सिंदूर अर्पण करने से सौभाग्य की प्राप्ति होती है।
विध्ननाशक को धूप अर्पण करने से कीर्ति मिलती है।
गणपति बप्पा को लड्डू अर्पण करने से मनोवांछित फल की प्राप्ति होती है।
सौभाग्य को आकर्षित करें! – अभी विशेषज्ञ ज्योतिषी से बात करें!
गणेशजी के आशीर्वाद सहित,